Tuesday, March 16, 2010

आतंक वाद

 यह  जहर  न  जाने  कितनी
बलियां   और  लेगा ?
जाने  कितनी  माँ -बहनों   के
हृदय  तड्पाएगा .
कब  तक  होता   रहेगा
मानवता  का  नरसंहार ?
कब  तक  खंडित  रहेगा
मेरे  स्वदेश  का  यह  दुलार
क्या  कभी   न  हो  पायेगा
भाई  का  भाई  से  प्यार ?
क्या  टुकड़ो  में  बट  जाएगी
कश्मीरी  सुषमा  की  बहार
क्यों  प्यार  बांटते  हो  सबका
क्या  तनिक  भी  तुमको  छोभ  नहीं ?
राम  रहीम  की   वाणी    क्या  थी ?  
उसकी   कोई  सोंच   नहीं ,
बंद  करो   यह   भूल -  भुलैया  
झटको  इन  तुच्छ   विचारों  को.
यह  सारा  भारत  अपना  है
मत  सोचो   देश  बाटने  को.
आतंकवाद  की   यह  ज्वाला
जैसे  ही  बुझ  जाएगी  ,
भाई  चारे  से  हर्षित  हो
यह  वसुधा  दीप  जलाएगी .

पूर्णिमा त्रिपाठी







Monday, March 15, 2010

जागो


Sunday, March 14, 2010

यादों के धुंधले साए में

यादों  के  धुंधले  साये  


पीछा  करते  हैं .


वक़्त  गुजरता  जाता  हैं,


पर  अहसास  की  डोरी  थामे


भविष्य   के  उजालों   में  भूत 


के  अंधेरों   का  डर,


मन  को  कमजोर   करता  हैं.


रामरती  की  आहें ,


भोलू   काका  की  मजबूरी ,


चंपा  भौजी  की  व्याकुलता ,


रन्नो  की  पहाड़   सी  जवानी,


नंदू  भैया  की  बेरोजगारी ,


कुछ  सुलगते  हुए  सवाल ?


अधूरे  ठन्डे  से  जवाब.


आम  आदमी  के  जीवन  का  रहस्य


अनदेखा  अनकहा  भविष्य


कब  पिघलेगा  सूनी 


आँखों  का  नीर


कब  कटेगा कोहरा


हटेगी  पीर .


खाली खाली आँखों   में


सजेंगे  सुनहरे  ख्वाब,


तब  बोलेंगे  हम  होंगे  कामयाब .

Monday, March 8, 2010

ढाई आखर

कबीर  के   ढाई  आखर  

और  यह  कहना  की

प्रेम  न  बाड़ी   उपजे

प्रेम  न  हाट  बिकाय

सत्य  ही  है .

क्योंकि  इसके  लिए  तो

हृदय  की  उर्वर  जमीन

और  भावनाओ  संवेदनाओ

का  बीज  चाहिए.

भावनाए  जो  चिटक  कर

बिखरती  है  तो

जोडती  है  दो  तारों   को,

जिनको  कसने  से  गूँज

उठता  है   मधुर  संगीत

और  जाग  जाते  हैं

सुप्त  इंसान .

संवेदनाएं  जब  उभरती  है

तो  परिचित  कराती  हैं

मानव  को  मनुष्यत्व  से,

और  भगाती   हैं  कुंठाएं

बनाती  है  महान.

    
पूर्णिमा बाजपेयी त्रिपाठी

Sunday, March 7, 2010

अस्तित्व बोध

अंतरास्ट्रीय महिला दिवस पर

 बीज  को  चाहिए
 पनपने  के  लिए  
 उर्वर  जमीन
 पुष्पित  पल्लवित
 होने  के  लिए
 खाद  और  पानी
 तुम  धरा  हो ,
 स्रष्टि  का  आधा  अंग 
 अपने  अस्तित्व   को  पहचानो ,
 हुंकार  कर  कहो
 तुम्हे  दैवीय  
 परिभाषाएं  नहीं ,
 स्त्रीत्व  का अभिमान   चाहिए ,
 लोक  लाज  और  समाज
 सबने  दिया  है
 एक  अवगुंठन
 जिसके  अन्धेरें
 तुम्हारे  होने  को
 बनाते  है  एक  प्रश्न     
 और  तुम  लज्जा  को  
 आभूषण  बना
 चुकती  रहती  हो  तब  तक
 जब  तक तुम्हारे  हाड़  मास  से ,
 लहू  की  एक  - एक  बूँद
 तुम्हारे  अरमानो  का
 एक  एक  कतरा ,
 तुम्हारी  भावनाओं
 के  समंदर  का
 अगाध  स्नेह
 ख़ाली न  हो  जाए
 क्या  तुम  नहीं  जानती ?
 की  तुम  स्वयंसिद्धा  हो ,
 तुम्हारी  एक  हाँ  और  ना
 पर  टिका  है ,
 स्रष्टि    का   भविष्य .
 फिर  तुम  क्यों ?
 बेबसी  और  लाचारी  की
 प्रतिमूर्ति  बन
 आँखों  में,
 याचना  का  भाव  लिए
 भटकती  हो  वहां ,
 जहां  सूखा ,
 सिर्फ  सूखा  श्रोत   है
 जो  खुद   प्यासा  है  ,
 तुम्हे  क्या  पिलाएगा
 झटक  कर  खड़ी  हो  ,
 अपने  पावों    पर ,
 स्वयं  को  पहचानों
 क्योंकि  तुम  एक  स्तम्भ  हो
 इस  स्रष्टि   के ,
 समूल  परिवर्तन  का

पूर्णिमा त्रिपाठी .




Friday, March 5, 2010

वोह एक लड़की

वोह   एक  लड़की
 मखमल  के  जैसी 
 ओस  में  नहाई  
सकुचाई  शरमाई
 सुंदर  सा  मुखड़ा
 वोह  एक  लड़की .  
अलबेली,   अनजानी , 
थोड़ी  सी  पहचानी, 
 आँखों  में  सपने  है 
 सपने  जो  अपने  है 
 कुछ  कर  गुजरने  का 
 जज्बा  भी  था  उसमें 
 वोह   एक  लड़की. 
 छूने  को  तारों   को
 बहती  बयारों   को 
 मन  में  उमंगें  थी 
 तिरती  तरंगे  थी
.साह्स  और  छमता का 
 संगम  अनूठा  था 
 वोह  एक   लड़की . 

महिला दिवस ८ मार्च पर विशेष

आओ मनाएं फिर
एक बार महिला दिवस,
संकल्प करें ज्यादा
भ्रूढ़ हत्याओं की
प्रतिज्ञा करें नारी के
नारीत्व के खंडन की
समाज में स्त्री पुरुष
की समानता की.
आओ फिर पीटें ढोल
स्त्रियों के आरक्षण का
आओ फिर फहराएं परचम
दिखावे की सुरक्षा का
आओ फिर करें नीलामी
किसी कमला विमला
और सलमा की.
आओ फिर करें चर्चा
बेटों को कटोरा भर दूध
और बेटियों को पानी की,
आओ फिर करें अभिमान
मुट्ठी भर सम्मानित और
करोडो अपमानितों की
पर ; इन सबसे परे,
आओ फिर मनाएं एक
और महिला दिवस
नारी के नारीत्व
की परिपूर्णता का.
आओ करें प्रतिज्ञा
अपने को अबला से
सबला बनाने की
स्वयं उठ कर
दूसरों को
ऊँचा उठाने की
आओ पुनः करें प्रयास
समाज को स्वच्छ सुंदर
और विचारवान बनाने की.
आओ छू लें आकाश
इस महिला दिवस पर .


Wednesday, March 3, 2010

मेरी भारत सरकार से विनम्र प्रार्थना है की यदि वो महिलाओं की भलाई  के लिए कुछ करना चाहती है तो वो शराब पर पूर्ण पाबन्दी लगा दे जिसके फलस्वरूप एक आम महिला की तकलीफ कुछ हद तक कम हो जाएगी .मेरी काम वाली अपनी तीन बेटिओं के साथ मिलकर काम करती चारों ठीक-ठाक कम लेती है पर उनका शराबी पति जो रिक्शा चलाता है अपनी पूरी कमाई तो शाम को शराब में उड़ा ही देता है और जो बेचारिओं ने तिनका तिनका करके घर गृहस्थी का सामान जोड़ा होता है उसे भी तहस -नहस कर देता है उस पर तुर्रा ये की अपनी ही कमाई का तो पीता हूँ .ये किसी एक सोनी ,रामप्यारी या चम्पाकली की दास्तान नहीं है बल्कि लाखो सोनियों,राम्प्यारिओं,व चम्पकलियो की दास्तान है ये रोज -रोज मर- मर कर जीने की कहानी है . ये वो आधी दुनिया है जिसके काँधे इस देश और समाज का आधा बोझ उठाए हुए है .यह समस्या सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है वरन तथा कथित पढ़े लिखे मध्य वर्गीय और निम्न मध्य वर्गीय तबके की महिलाओं को  भी इस समस्या से दो चार होना ही पड़ता है .जगह जगह   खुली  हुई   मधुशालाएँ  बंद   होनी  ही चाहियें .मानसिक और शारीरिक रूप से जो कस्ट इन महिलाओं को उठाना पड़ता है वह समाज की अपूर्णीय छति है .       

ठूंठ

तुम ठूंठ मैं ठूंठ
सब ठूंठ ही ठूंठ
ज्यों -ज्यों हमने
'कलि' युग को
स्वर्ण युग में बदला 
त्यों -त्यों कलपुर्जों 
में बदल फिट होते गए 
मशीनों में 
बनते गए ठूंठ .
हमारी संवेदनाएं, भावनाएं,
वेदनाएं ,सर्जनाएं 
सब ठूंठ ही ठूंठ 
धरती से अम्बर तक
ठूंठ ही ठूंठ 
काश! इन ठूंठों पर
 एक कोमल ,चिकना 
हरा -लाल पत्ता 
मुलक कर 
विहँस कर 
स्वयं को जगा ले 
और भर दे हरीतिमा से 
इन ठूंठों को 
और दे- दे
एक नया जीवन 
एक नयी सोंच 
एक नया परिवेश ,
और ठूंठ बदल जाये 
हरे-भरे लक - दक 
करते वृक्षों में 
सब को दे साँस 
जीने की आस .      

Tuesday, March 2, 2010

रत है जो औरों के लिए
उस औरत का दर्द भी
साँझा होता है .
बाप की देहलीज पर
माँ के आंसुओं की
सांझी पीड़ा ,
जवान बहनों के
बुढ़ाते अरमानो
की कसक
बेरोजगार भाई की
आँखों में व्यवस्था
के खिलाफ
आक्रोश
सबके आसुओं
के साथ
अपने भी आंसू
मिला ,साथ- साथ
पीती है .करती है
संघर्ष अपने
अस्तित्व की पहचान को
शाख से टूटकर
जोडती है
तिनका तिनका
बनाती है नीड़
बाँटती है दुःख
और दर्द सांझे
इस घर के
उस घर के.

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मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.