उधार का दिए से
घर रोशन नहीं होता
वक़्त बदलते ही कोई आएगा
अक्स की हकीक़त समझाएगा
और दिए को ले जायेगा
मेरे घर फिर अँधेरा रह जायेगा .
तुम उधार के दिए हो
तभी समझ जाती
तो अंतस की पीड़ा
को प्रश्रय न देती
अब तो जान पे बन आई है ,
इधर कुआं उधर खाई है
थोडा टिमटिमा कर
रौशनी दिखा कर
चाहत जगा कर
छू लिया मेरे मन के
मासूम कोने को .
बिखेर दी है अपने
अस्तित्व की रौशनी
मेरे तन-मन की गंध में
और अब समेटने लगे हो
अपने तन-मन की रौशनी को.
मैं चाहत की मारी
आजीवन अँधेरे का
अभिशाप झेलती रहूंगी
और फिर कभी
प्रेम को परिभाषित
करने की जुर्रत
न कर सकूँ
इस लिए उधार के
दिए की पीड़ा पालती रहूंगी.
पूर्णिमा त्रिपाठी
Wednesday, November 17, 2010
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- PURNIMA BAJPAI TRIPATHI
- Kanpur, Uttar Pradesh, India
- मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.