प्रेम में परिभाषित क्या ?
अपरिभाषित क्या ?
मर्यादित क्या ?
अमर्यादित क्या?
सामजिक क्या ?
असामाजिक क्या?
सभी एक ही
तराजू से तुलते हैं
हृदय की सघन
परतों के बीच
पनपता है यह .
अचानक कोई
इतना करीब
हो जाता है कि
आप सबसे दूर
स्मृतियों को सहेजे
पल - छिन
रात और दिन
डूबे रहते हैं
अक्स तलाशने में .
यह खोज जारी
रहती है अनवरत
तब - तक जब - तक
तुम सामने सशरीर न हो .
तुम्हारी |
शहद सी मीठी बातें
और प्यार भरी
चितवन न हो .
तुम्हारा अस्तित्व
बनता है सांसों के
चलने का ईधन
और तुम पूरे के पूरे
मुझमें समाकर, बना
देते हो मुझे सम्पूर्ण .
और मैं तुम्हे सम्भोग
में समाधि का देकर
चरम आनंद
बनाती हूँ विदेह
और तब तुम नई
आभा से होकर दीप्त
ऊर्जा से होकर प्रदीप्त ,
करते हो एक नया सृजन .
बनते हो युग द्रष्टा
और मैं अनुभव करती हूँ
असीम शांति का
करती हूँ गर्व,महसूसती हूँ
सुख,तुम्हे अनंत में
अखंड देखने का .
पूर्णिमा त्रिपाठी
Monday, November 29, 2010
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- PURNIMA BAJPAI TRIPATHI
- Kanpur, Uttar Pradesh, India
- मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.