Sunday, March 7, 2010

अस्तित्व बोध

अंतरास्ट्रीय महिला दिवस पर

 बीज  को  चाहिए
 पनपने  के  लिए  
 उर्वर  जमीन
 पुष्पित  पल्लवित
 होने  के  लिए
 खाद  और  पानी
 तुम  धरा  हो ,
 स्रष्टि  का  आधा  अंग 
 अपने  अस्तित्व   को  पहचानो ,
 हुंकार  कर  कहो
 तुम्हे  दैवीय  
 परिभाषाएं  नहीं ,
 स्त्रीत्व  का अभिमान   चाहिए ,
 लोक  लाज  और  समाज
 सबने  दिया  है
 एक  अवगुंठन
 जिसके  अन्धेरें
 तुम्हारे  होने  को
 बनाते  है  एक  प्रश्न     
 और  तुम  लज्जा  को  
 आभूषण  बना
 चुकती  रहती  हो  तब  तक
 जब  तक तुम्हारे  हाड़  मास  से ,
 लहू  की  एक  - एक  बूँद
 तुम्हारे  अरमानो  का
 एक  एक  कतरा ,
 तुम्हारी  भावनाओं
 के  समंदर  का
 अगाध  स्नेह
 ख़ाली न  हो  जाए
 क्या  तुम  नहीं  जानती ?
 की  तुम  स्वयंसिद्धा  हो ,
 तुम्हारी  एक  हाँ  और  ना
 पर  टिका  है ,
 स्रष्टि    का   भविष्य .
 फिर  तुम  क्यों ?
 बेबसी  और  लाचारी  की
 प्रतिमूर्ति  बन
 आँखों  में,
 याचना  का  भाव  लिए
 भटकती  हो  वहां ,
 जहां  सूखा ,
 सिर्फ  सूखा  श्रोत   है
 जो  खुद   प्यासा  है  ,
 तुम्हे  क्या  पिलाएगा
 झटक  कर  खड़ी  हो  ,
 अपने  पावों    पर ,
 स्वयं  को  पहचानों
 क्योंकि  तुम  एक  स्तम्भ  हो
 इस  स्रष्टि   के ,
 समूल  परिवर्तन  का

पूर्णिमा त्रिपाठी .




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Kanpur, Uttar Pradesh, India
मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.