हरे कांच की चूड़ियां
आज फिर उसने अपने वार्डरोब से सुंदर,चटकीले हरे रंग की साड़ी निकाली और बहुत ही सुघड़ता से तैयार होकर ड्रेसिंगटेबल के आदमकद शीशे के सामने खड़े होकर खुद को निहारा।अचानक उसकी नज़र अपने सूने हाँथों पर गयी उसने झट से बैंगलबाक्स से सम्हाल कर रखी गयी पुरानी कामदार हरी चूड़ियां निकाल कर पहन लीं। अतीत के तमाम चलचित्र उसकी सजल आंखों में तैर गये। ये उसकी मां की दी हुयी अनुपम और अंतिम सावनी थी जिसे वो साल दर साल जीती है।क्योंकि अब मां-मायका और मन इन्हीं हरी कामदार चूड़ियों में समा गया है।
पूर्णिमा त्रिपाठी बाजपेयी
109/191ए’ जवाहर
नगर कानपुर
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