अपनी कोमल भावनाओं
निश्चल व्यवहार
दुनियावी पाखण्ड से दूर
तुम फिर छली गयी
क्यों तुमने अपनी आँखों पर
भावनावों का चश्मा
चढ़ा रखा है.
क्यों तुम बार-बार
लुटती हो, टूटती हो,बिखरती हो.
कभी न सिमटने के लिए
खुद को मानो ,जानो,पहचानो
भेड़ियों की भीड़ में
बकरी बन मिमियाने
से मिट जाओगी
सिंहनी बन दहाड़ो.
पूर्णिमा त्रिपाठी
Wednesday, November 10, 2010
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- PURNIMA BAJPAI TRIPATHI
- मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.
बहुत ही सुंदर रचना... अंतिम पंक्तियों ने तो मन मोह लिया...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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