तुम कृष्ण बनकर
महानता का कार्य
करने की बातें करते हो,
और मैं राधा बन
राधा की विवशता
कातरता ,विरहाग्नि
महसूस करती हूँ ,
कृष्ण बनना आसन है.
कृष्ण बन राधा से
भूल जाने का,
मुक्त होने का वचन
ले लेना आसान है.
परन्तु राधा बन
कृष्ण को भुलाना
पूर्णतः असंभव है .
उतना ही, जितना तुम्हे
मथुरा को छोड़ना
असंभव लगता है .
राधा की पीड़ा का
अहसास तुम्हे हो न हो
परन्तु कृष्ण की दुविधा का
अनुमान मुझे पूरा है
फिर क्या करे ? न तो
तुम कृष्ण सम
सर्व व्यापी हो
और न मैं राधा सम
समाज में स्वीकृत,
आओ| फिर एक
विचार करें और
बना लें एक दूसरे को
जीवन का लक्ष्य.
और पहुंचे ,उस
ऊंचाई पर
जहाँ हर बंधन
से परे एक नया
संसार प्रतीक्षा कर
रहा होगा,जहाँ
तेरे और मेरे
सब अपने होंगे
जहाँ स्पर्श का
सुख न सही
विचारों का तालमेल
स्नेहिल मन होगा
जहाँ तुम्हारी सारी
विवशताएँ दुख और दर्द
अच्छाई और बुराई
सब मेरे होंगे
और तुम निश्चिन्त
व निष्काम हो
फिर बनो एक बार
कृष्ण और दो
एक महान सन्देश
आने वाले युग को
और हमारा मिलन हो
अनंत के पार .
पूर्णिमा त्रिपाठी
Tuesday, November 30, 2010
Monday, November 29, 2010
प्रेम:जीवन की परिभाषा
प्रेम में परिभाषित क्या ?
अपरिभाषित क्या ?
मर्यादित क्या ?
अमर्यादित क्या?
सामजिक क्या ?
असामाजिक क्या?
सभी एक ही
तराजू से तुलते हैं
हृदय की सघन
परतों के बीच
पनपता है यह .
अचानक कोई
इतना करीब
हो जाता है कि
आप सबसे दूर
स्मृतियों को सहेजे
पल - छिन
रात और दिन
डूबे रहते हैं
अक्स तलाशने में .
यह खोज जारी
रहती है अनवरत
तब - तक जब - तक
तुम सामने सशरीर न हो .
तुम्हारी |
शहद सी मीठी बातें
और प्यार भरी
चितवन न हो .
तुम्हारा अस्तित्व
बनता है सांसों के
चलने का ईधन
और तुम पूरे के पूरे
मुझमें समाकर, बना
देते हो मुझे सम्पूर्ण .
और मैं तुम्हे सम्भोग
में समाधि का देकर
चरम आनंद
बनाती हूँ विदेह
और तब तुम नई
आभा से होकर दीप्त
ऊर्जा से होकर प्रदीप्त ,
करते हो एक नया सृजन .
बनते हो युग द्रष्टा
और मैं अनुभव करती हूँ
असीम शांति का
करती हूँ गर्व,महसूसती हूँ
सुख,तुम्हे अनंत में
अखंड देखने का .
पूर्णिमा त्रिपाठी
अपरिभाषित क्या ?
मर्यादित क्या ?
अमर्यादित क्या?
सामजिक क्या ?
असामाजिक क्या?
सभी एक ही
तराजू से तुलते हैं
हृदय की सघन
परतों के बीच
पनपता है यह .
अचानक कोई
इतना करीब
हो जाता है कि
आप सबसे दूर
स्मृतियों को सहेजे
पल - छिन
रात और दिन
डूबे रहते हैं
अक्स तलाशने में .
यह खोज जारी
रहती है अनवरत
तब - तक जब - तक
तुम सामने सशरीर न हो .
तुम्हारी |
शहद सी मीठी बातें
और प्यार भरी
चितवन न हो .
तुम्हारा अस्तित्व
बनता है सांसों के
चलने का ईधन
और तुम पूरे के पूरे
मुझमें समाकर, बना
देते हो मुझे सम्पूर्ण .
और मैं तुम्हे सम्भोग
में समाधि का देकर
चरम आनंद
बनाती हूँ विदेह
और तब तुम नई
आभा से होकर दीप्त
ऊर्जा से होकर प्रदीप्त ,
करते हो एक नया सृजन .
बनते हो युग द्रष्टा
और मैं अनुभव करती हूँ
असीम शांति का
करती हूँ गर्व,महसूसती हूँ
सुख,तुम्हे अनंत में
अखंड देखने का .
पूर्णिमा त्रिपाठी
Friday, November 26, 2010
जीवन गति
चल री पवन चल चल चल
आज यहाँ कल वहां ठहर
जीवन कि गति शास्वत संगम
जीवन दुख कि एक लहर .
माना जीवन में दुख आते
एक झोके में सब बह जाते,
झंझावातों से क्या डरना ?
दुख के अवसानो को लाते.
दुख कि निशा बीतने पर
स्वर्णिम प्रभात मुस्काता है
जीवन की राहें कर प्रशस्त
सुखमय उसको कर जाता है
पूर्णिमा त्रिपाठी
आज यहाँ कल वहां ठहर
जीवन कि गति शास्वत संगम
जीवन दुख कि एक लहर .
माना जीवन में दुख आते
एक झोके में सब बह जाते,
झंझावातों से क्या डरना ?
दुख के अवसानो को लाते.
दुख कि निशा बीतने पर
स्वर्णिम प्रभात मुस्काता है
जीवन की राहें कर प्रशस्त
सुखमय उसको कर जाता है
पूर्णिमा त्रिपाठी
Thursday, November 25, 2010
मुखौटे
चेहरे पर लगे मुखौटे
जीवन की वास्तविकता
से परे जीवन को
बोझिल बना देते है.
बरसती आँखों पर
ख़ुशी का मुखौटा
सहमें होठों पर
हंसी का मुखौटा
जीने का अंदाज
बयाँ करने वाले
जीने के अंदाज का
दोहरा मुखौटा.
कब तक मुखौटे
के सहारे जिंदगी
बिताओगे ?
कही न कहीं
मात खाओगे.
एक बार सिर्फ
एक पल के लिए
सारे मुखौटे उतार
उस पल को जियो,
पाओगे जिंदगी
बहुत अपनी है .
मुखौटे के सहारे
जीवन के पल
गुजारे जा सकते है
आत्मा से परे मन से दूर
जिए नहीं जा सकते .
मुखौटे हकीक़त नहीं
एक आवरण भर हैं
आवरण कभी भी हट सकता है .
पूर्णिमा त्रिपाठी
जीवन की वास्तविकता
से परे जीवन को
बोझिल बना देते है.
बरसती आँखों पर
ख़ुशी का मुखौटा
सहमें होठों पर
हंसी का मुखौटा
जीने का अंदाज
बयाँ करने वाले
जीने के अंदाज का
दोहरा मुखौटा.
कब तक मुखौटे
के सहारे जिंदगी
बिताओगे ?
कही न कहीं
मात खाओगे.
एक बार सिर्फ
एक पल के लिए
सारे मुखौटे उतार
उस पल को जियो,
पाओगे जिंदगी
बहुत अपनी है .
मुखौटे के सहारे
जीवन के पल
गुजारे जा सकते है
आत्मा से परे मन से दूर
जिए नहीं जा सकते .
मुखौटे हकीक़त नहीं
एक आवरण भर हैं
आवरण कभी भी हट सकता है .
पूर्णिमा त्रिपाठी
Sunday, November 21, 2010
प्रेम एक : संघर्ष
चाहत है तो संघर्ष है ,
संघर्ष है तो रास्ते है
कुछ ऊँचे - नीचे
कुछ टेढ़े - मेढे
कुछ सीधे - सच्चे .
जीवन एक कर्मयुद्ध है ,
लड़ाई तो लड़नी है,
परन्तु कर्त्तव्य भी करना है .
जिंदगी भावनाओं का ज्वार है
मिटने नहीं देना है ,
महसूस भी करना है .
जिंदगी एक नाट्य रूपांतर है
हमें प्राण फूंक
जीवन्तता रखनी है .
जिंदगी दूसरों का कर्ज है
खुद को लुटा देना है ,
दूसरों कि एक मुसकान पर .
जिंदगी स्वयं के लिए
वरदान है .
भरने है
कुछ रंग अपने लिए.
सहेजनी है कुछ स्मृतियाँ
छीनने है कुछ पल ,
जो अपने ,सिर्फ अपने लिए हों .
जिंदगी के संघर्ष
सारी संवेदनाएं ,भावनाएं
जुड़कर बनायेंगी नया अध्याय
जो जिंदगी को देगा
एक नया रूप.
पूर्णिमा त्रिपाठी
संघर्ष है तो रास्ते है
कुछ ऊँचे - नीचे
कुछ टेढ़े - मेढे
कुछ सीधे - सच्चे .
जीवन एक कर्मयुद्ध है ,
लड़ाई तो लड़नी है,
परन्तु कर्त्तव्य भी करना है .
जिंदगी भावनाओं का ज्वार है
मिटने नहीं देना है ,
महसूस भी करना है .
जिंदगी एक नाट्य रूपांतर है
हमें प्राण फूंक
जीवन्तता रखनी है .
जिंदगी दूसरों का कर्ज है
खुद को लुटा देना है ,
दूसरों कि एक मुसकान पर .
जिंदगी स्वयं के लिए
वरदान है .
भरने है
कुछ रंग अपने लिए.
सहेजनी है कुछ स्मृतियाँ
छीनने है कुछ पल ,
जो अपने ,सिर्फ अपने लिए हों .
जिंदगी के संघर्ष
सारी संवेदनाएं ,भावनाएं
जुड़कर बनायेंगी नया अध्याय
जो जिंदगी को देगा
एक नया रूप.
पूर्णिमा त्रिपाठी
Friday, November 19, 2010
मुझे मालूम है
मुझे मालूम है कि
यह पहला अहसास है
जिसने मेरी आत्मा को छुआ
मैं बार- बार इस छुअन को
महसूस करना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है कि
यह क्षणिक आवेग है ,
मुझे मालूम है कि
यह मृग मरीचिका है,
फिर भी इसके पीछे भागती हूँ .
मुझे मालूम है कि
रेत से महल नहीं बनते
फिर भी बनाने का
प्रयास करती हूँ .
मुझे मालूम है कि इन
क्षणों में बार-बार मरी हूँ
फिर भी जीना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है कि
समर्पण ही प्रेम की परिभाषा है
फिर भी अपने आप को बांटती हूँ .
मुझे मालूम है की
यह स्वप्न है, छलावा है
फिर भी पलकों पर सजाती हूँ .
मुझे मालूम है की तुम
सूर्य हो मैं हूँ धरा
फिर भी तपिश पा
तपना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है की
तुम व्रक्ष हो मैं छांव हूँ
तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है की तुम
हारकर जीते ,
मैं जीत कर हारी
फिर भी तुम्हे
जीत देना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है की तुम
शब्द-शब्द बिखरे हो
तुम्हे समेट कर ,
एक रूप देना चाहती हूँ .
पूर्णिमा त्रिपाठी
यह पहला अहसास है
जिसने मेरी आत्मा को छुआ
मैं बार- बार इस छुअन को
महसूस करना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है कि
यह क्षणिक आवेग है ,
मुझे मालूम है कि
यह मृग मरीचिका है,
फिर भी इसके पीछे भागती हूँ .
मुझे मालूम है कि
रेत से महल नहीं बनते
फिर भी बनाने का
प्रयास करती हूँ .
मुझे मालूम है कि इन
क्षणों में बार-बार मरी हूँ
फिर भी जीना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है कि
समर्पण ही प्रेम की परिभाषा है
फिर भी अपने आप को बांटती हूँ .
मुझे मालूम है की
यह स्वप्न है, छलावा है
फिर भी पलकों पर सजाती हूँ .
मुझे मालूम है की तुम
सूर्य हो मैं हूँ धरा
फिर भी तपिश पा
तपना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है की
तुम व्रक्ष हो मैं छांव हूँ
तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है की तुम
हारकर जीते ,
मैं जीत कर हारी
फिर भी तुम्हे
जीत देना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है की तुम
शब्द-शब्द बिखरे हो
तुम्हे समेट कर ,
एक रूप देना चाहती हूँ .
पूर्णिमा त्रिपाठी
Thursday, November 18, 2010
वो क्षण
वो क्षण जब तुमने
मुझे छूकर,
कंचन बना दिया.
वो पल था अनमोल ,
जब तुमने अपने
प्रेम का प्रतिदान
मांग कर
मुझे दानी बना दिया .
वो क्षण जब तुम
किसी तरुण की भाति
याचक बन कर खड़े थे ,
और मैं किसी सोड्सी सम
अभिव्यक्ति से परे थी .
उस क्षण मैंने जी लिए
सहस्रों युग सहस्रों जन्म
और कैद कर लिया
उस अनुभूति को
जो अनुपम है ,अतुलनीय भी
जिसे महसूस कर
मरने से परे
मैं बार- बार
जी सकती हूँ .
पूर्णिमा त्रिपाठी
मुझे छूकर,
कंचन बना दिया.
वो पल था अनमोल ,
जब तुमने अपने
प्रेम का प्रतिदान
मांग कर
मुझे दानी बना दिया .
वो क्षण जब तुम
किसी तरुण की भाति
याचक बन कर खड़े थे ,
और मैं किसी सोड्सी सम
अभिव्यक्ति से परे थी .
उस क्षण मैंने जी लिए
सहस्रों युग सहस्रों जन्म
और कैद कर लिया
उस अनुभूति को
जो अनुपम है ,अतुलनीय भी
जिसे महसूस कर
मरने से परे
मैं बार- बार
जी सकती हूँ .
पूर्णिमा त्रिपाठी
Wednesday, November 17, 2010
उधार का दिया
उधार का दिए से
घर रोशन नहीं होता
वक़्त बदलते ही कोई आएगा
अक्स की हकीक़त समझाएगा
और दिए को ले जायेगा
मेरे घर फिर अँधेरा रह जायेगा .
तुम उधार के दिए हो
तभी समझ जाती
तो अंतस की पीड़ा
को प्रश्रय न देती
अब तो जान पे बन आई है ,
इधर कुआं उधर खाई है
थोडा टिमटिमा कर
रौशनी दिखा कर
चाहत जगा कर
छू लिया मेरे मन के
मासूम कोने को .
बिखेर दी है अपने
अस्तित्व की रौशनी
मेरे तन-मन की गंध में
और अब समेटने लगे हो
अपने तन-मन की रौशनी को.
मैं चाहत की मारी
आजीवन अँधेरे का
अभिशाप झेलती रहूंगी
और फिर कभी
प्रेम को परिभाषित
करने की जुर्रत
न कर सकूँ
इस लिए उधार के
दिए की पीड़ा पालती रहूंगी.
पूर्णिमा त्रिपाठी
घर रोशन नहीं होता
वक़्त बदलते ही कोई आएगा
अक्स की हकीक़त समझाएगा
और दिए को ले जायेगा
मेरे घर फिर अँधेरा रह जायेगा .
तुम उधार के दिए हो
तभी समझ जाती
तो अंतस की पीड़ा
को प्रश्रय न देती
अब तो जान पे बन आई है ,
इधर कुआं उधर खाई है
थोडा टिमटिमा कर
रौशनी दिखा कर
चाहत जगा कर
छू लिया मेरे मन के
मासूम कोने को .
बिखेर दी है अपने
अस्तित्व की रौशनी
मेरे तन-मन की गंध में
और अब समेटने लगे हो
अपने तन-मन की रौशनी को.
मैं चाहत की मारी
आजीवन अँधेरे का
अभिशाप झेलती रहूंगी
और फिर कभी
प्रेम को परिभाषित
करने की जुर्रत
न कर सकूँ
इस लिए उधार के
दिए की पीड़ा पालती रहूंगी.
पूर्णिमा त्रिपाठी
Sunday, November 14, 2010
मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ
पूर्णता का पर्याय
हे पुरुष मेरे
पास आकर तुम
पूर्णत्व को प्राप्त करो.
अपनी साड़ी जिज्ञासाएं
अनैतिक कुंठाएं
पूरी विसमतायें
मुझमे स्नान करके
मेरे ही अन्दर
छोड़ दो और
मैं उन्हें परिमार्जित
कर दूँगी एक
सुघड़ नया रूप
जो होगा एक
चेहरा सलोना
.उस नए प्रस्फुटन
को सामने रख
मैं तुम्हे उसमे
तुम्हारा ही रूप
दिखाउंगी तब तुम
मेरी क्षमता और
ममता को परख ,
मेरे आँचल में
सामाजाना.
और फिर एक बार
मै तुम्हे प्यार से
चूमकर सारी कुंठाओं
को दूर कर
तुम्हे पूर्ण पुरुष
बना पूर्णत्व दूँगी.
पूर्णिमा त्रिपाठी
पूर्णता का पर्याय
हे पुरुष मेरे
पास आकर तुम
पूर्णत्व को प्राप्त करो.
अपनी साड़ी जिज्ञासाएं
अनैतिक कुंठाएं
पूरी विसमतायें
मुझमे स्नान करके
मेरे ही अन्दर
छोड़ दो और
मैं उन्हें परिमार्जित
कर दूँगी एक
सुघड़ नया रूप
जो होगा एक
चेहरा सलोना
.उस नए प्रस्फुटन
को सामने रख
मैं तुम्हे उसमे
तुम्हारा ही रूप
दिखाउंगी तब तुम
मेरी क्षमता और
ममता को परख ,
मेरे आँचल में
सामाजाना.
और फिर एक बार
मै तुम्हे प्यार से
चूमकर सारी कुंठाओं
को दूर कर
तुम्हे पूर्ण पुरुष
बना पूर्णत्व दूँगी.
पूर्णिमा त्रिपाठी
कामकाजी औरत
वो कामकाजी औरत
घर और समाज में
समानता का बोझ
अपने कंधे पर उठाये
स्कूलों ,दफ्तरों,
और समाज में अपनी
प्रतिभा बिखेरती है .
वो कामकाजी औरत
दिखती है गिट्टी तोड़ती
सड़कों से कचरा बीनती
दुधमुहें शिशु को परे रख
सर पर बोझ उठाती.
वो कामकाजी औरत
सहती है वासना
से भरी द्रष्टि
बचाती है समाज
के अस्तित्व को
फिर जानती है
एक पुरुष को
जो उघारता है
तन और मन
देता है नासूर
जो सालता है
उम्र दराज होने तक .
पूर्णिमा त्रिपाठी
घर और समाज में
समानता का बोझ
अपने कंधे पर उठाये
स्कूलों ,दफ्तरों,
और समाज में अपनी
प्रतिभा बिखेरती है .
वो कामकाजी औरत
दिखती है गिट्टी तोड़ती
सड़कों से कचरा बीनती
दुधमुहें शिशु को परे रख
सर पर बोझ उठाती.
वो कामकाजी औरत
सहती है वासना
से भरी द्रष्टि
बचाती है समाज
के अस्तित्व को
फिर जानती है
एक पुरुष को
जो उघारता है
तन और मन
देता है नासूर
जो सालता है
उम्र दराज होने तक .
पूर्णिमा त्रिपाठी
Thursday, November 11, 2010
सृजन पथ
तुम्हारे सृजन का पथ
अगर मेरी आत्मा के
द्वार से गुजरता है
तो यह अजर- अमर
तुम्हारे सृजन को
सतत प्रवाहित सरिता बना
अपने में मिला लेगी .
तुम्हारे सृजन का पथ
मेरे ह्रदय के द्वार से
गुजरता है तो शब्दों को
प्रीति में डुबो माधुर्य
की लेखनी से सवार
आकंठ डूबी भावनाओं
का उपहार देगी.
तुम्हारे सृजन का पथ
मेरे गात से गुजरता है
तो इस शरीर को
तपोभूमि बना देह की
आग से तपा पूर्णता से
भर तुम्हारे सृजन को
अपरिमित होने का
अहसास देगी .
पूर्णिमा त्रिपाठी
अगर मेरी आत्मा के
द्वार से गुजरता है
तो यह अजर- अमर
तुम्हारे सृजन को
सतत प्रवाहित सरिता बना
अपने में मिला लेगी .
तुम्हारे सृजन का पथ
मेरे ह्रदय के द्वार से
गुजरता है तो शब्दों को
प्रीति में डुबो माधुर्य
की लेखनी से सवार
आकंठ डूबी भावनाओं
का उपहार देगी.
तुम्हारे सृजन का पथ
मेरे गात से गुजरता है
तो इस शरीर को
तपोभूमि बना देह की
आग से तपा पूर्णता से
भर तुम्हारे सृजन को
अपरिमित होने का
अहसास देगी .
पूर्णिमा त्रिपाठी
Wednesday, November 10, 2010
नारी: श्रष्टि का आधार
अपनी कोमल भावनाओं
निश्चल व्यवहार
दुनियावी पाखण्ड से दूर
तुम फिर छली गयी
क्यों तुमने अपनी आँखों पर
भावनावों का चश्मा
चढ़ा रखा है.
क्यों तुम बार-बार
लुटती हो, टूटती हो,बिखरती हो.
कभी न सिमटने के लिए
खुद को मानो ,जानो,पहचानो
भेड़ियों की भीड़ में
बकरी बन मिमियाने
से मिट जाओगी
सिंहनी बन दहाड़ो.
पूर्णिमा त्रिपाठी
निश्चल व्यवहार
दुनियावी पाखण्ड से दूर
तुम फिर छली गयी
क्यों तुमने अपनी आँखों पर
भावनावों का चश्मा
चढ़ा रखा है.
क्यों तुम बार-बार
लुटती हो, टूटती हो,बिखरती हो.
कभी न सिमटने के लिए
खुद को मानो ,जानो,पहचानो
भेड़ियों की भीड़ में
बकरी बन मिमियाने
से मिट जाओगी
सिंहनी बन दहाड़ो.
पूर्णिमा त्रिपाठी
बदनाम
तंग दिल
बजबजाती गलियाँ
भुतहे चेहरे
सभी कह रहे है
की मै बदनाम हो गयी हूँ.
मेरी कमजोर भावनाओं ,
आहत संवेगों ने
मुझे बदनामी की
दूकान बना दिया है.
चाहत के बाजार में
मैं प्रतिदिन बिकी हूँ .
उन भुतहे चेहरों की
सूखे होठों पर
लपलपाती जीभें
पूरे का पूरा खा
जाने वाली निगाहें
मुझमें ग्लानि नहीं जगाती
क्योंकि, मैंने
मन के बाजार में
चाहत की दूकान सजाकर
प्रेम की मुद्रा ले कर
देह की बेदी पर
एक लौ लगाई है .
मेरा तन और मन
मिलन स्थल है
उस क्षण का
जहां साड़ी कायनात से परे
एक शब्द गूजता है
प्रिय- प्रियतम- प्रेम
और तोड़ देता है बदनामी के
सारे मिथकों को.
पूर्णिमा त्रिपाठी
बजबजाती गलियाँ
भुतहे चेहरे
सभी कह रहे है
की मै बदनाम हो गयी हूँ.
मेरी कमजोर भावनाओं ,
आहत संवेगों ने
मुझे बदनामी की
दूकान बना दिया है.
चाहत के बाजार में
मैं प्रतिदिन बिकी हूँ .
उन भुतहे चेहरों की
सूखे होठों पर
लपलपाती जीभें
पूरे का पूरा खा
जाने वाली निगाहें
मुझमें ग्लानि नहीं जगाती
क्योंकि, मैंने
मन के बाजार में
चाहत की दूकान सजाकर
प्रेम की मुद्रा ले कर
देह की बेदी पर
एक लौ लगाई है .
मेरा तन और मन
मिलन स्थल है
उस क्षण का
जहां साड़ी कायनात से परे
एक शब्द गूजता है
प्रिय- प्रियतम- प्रेम
और तोड़ देता है बदनामी के
सारे मिथकों को.
पूर्णिमा त्रिपाठी
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- PURNIMA BAJPAI TRIPATHI
- Kanpur, Uttar Pradesh, India
- मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.