Sunday, November 14, 2010

कामकाजी औरत

वो कामकाजी औरत
घर और समाज में
समानता का बोझ
अपने कंधे पर उठाये
स्कूलों ,दफ्तरों,
और समाज  में अपनी 
प्रतिभा बिखेरती है .
वो कामकाजी औरत 
दिखती है गिट्टी तोड़ती
सड़कों से कचरा बीनती
दुधमुहें शिशु को परे रख
सर पर बोझ उठाती.
वो कामकाजी औरत
सहती है वासना
 से भरी द्रष्टि
बचाती है समाज
के अस्तित्व  को 
फिर जानती है 
एक पुरुष को 
जो उघारता है 
तन और मन 
देता है नासूर 
जो सालता है 
उम्र दराज होने तक . 


पूर्णिमा त्रिपाठी

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मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.