हुआ आरम्भ सिलसिला
एक अंतहीन सफ़र का
तुम जो मिल गए अचानक
पथिक सहयात्री बनकर
जाने क्यों लगने लगा
जैसे कि तुम चिरपुरातन
संगी हो मेरे,काया बदल
प्रगट हो गए हो अकस्मात्
तुम वही हो पथिक, जो
मेरी कल्पनाओं में
सात समन्दरों के पार
मेरे साथ कुलाचें भरता था .
तुम वही हो पथिक
जो मेरी सोंच,मेरी आत्मा,
मेरे मस्तिष्क को झिंझोड़
सरसराती हवा की तरह
निकल जाता था .
इस अंतहीन यात्रा में
तुम इतने दिन तक
कहाँ विश्राम कर रहे थे
मेरे सहचर ? आज |
मेरे सामने खड़े हो
मेरी सुप्त संवेदनाओं,
भावनाओं में प्राण फूंक दिए .
परन्तु मैं विवश
उस काया रहित
आत्मा की भांति
अप्रत्यक्ष तुम्हे चाह सकती हूँ
जी सकती हूँ ,
अपना सर्वस्व अर्पण कर
तुम्हें अनुभव कर सकती हूँ
परन्तु हाय | नियति
|प्रयत्यक्ष्तः तुम्हें अपने
अंक में समाकर
किसी वट - वृक्ष के तले
अभिसार नहीं कर सकती .
तुम्हें इतनी शीघ्रता क्यों थी ?
सहचर | क्यों थोड़ा पाने
की चाह में अपना सबकुछ
लुटा दिया? अब खाली हाथ |
कुछ देर प्रतीक्षा की होती
मुझे समय लगा तुम्हारी
यात्रा को सरस बनाने में
और तुम विकल, पहले ही
पथ पर चल पड़े .
अब अचानक मिले हो
तो थोड़ी देर ठहरो .
ठहर कर मेरे साथ चलो
ताकि मैं भर सकूँ,
अपना रीतापन
तुम्हारे अस्तित्व से.
पूर्णिमा त्रिपाठी
Monday, December 13, 2010
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- PURNIMA BAJPAI TRIPATHI
- मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.
भावों का जैसे सैलाब ही उमड़ पड़ा हो ....बहुत खूबसूरत प्रस्तुति
ReplyDelete........खूबसूरत प्रस्तुति
ReplyDeleteखूबसूरत प्रस्तुति
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