उजास
"मैं हूं अपने बाबूजी की बिब्बो" दमदार खनकती पर सधी हुई आवाज इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में गूंज उठी। विवेचना धर शास्त्री डायस पर खड़े होकर स्नातक हुए विद्यार्थियों को संबोधित कर रही है। छरहरा इकहरा बदन, लंबा कद खादी सिल्क की धूमिल श्वेत रंग की साड़ी लंबे बालों का जूड़ा, उसमें करीने से लगा गुलाब का फूल और माथे पर दमकते सूरज के आकार की बिंदी। भारतीयता की चलती फिरती मिसाल कंठ में मां सरस्वती मानो साक्षात विराजती हों। अचानक एक पत्रकार का विनम्र स्वर में सवाल उसे अतीत के घेरे में ले गया। पत्रकार पूँछ रहा था मैडम आप अपना उद्बोधन इसी पंक्ति से क्यों आरंभ करती हैं यह सुनकर उसकी आंखों में अपने गाँव उडंगाखेड़ा से लेकर कैंब्रिज के सीनेट हॉल तक का सफर तिर गया जो उसकी आत्मा और शरीर दोनों को लहू - लुहान करने वाला रहा। नन्ही सी बिब्बो! तीन वर्ष की उम्र में इलाज के अभाव में माता चल बसी। पंडित गदाधर शास्त्री पुरोहिताई से अपना जीवन- यापन बड़ी शांति और संतोष के साथ कर रहे थे कि अचानक काल का यह वज्रपात उन्हें अंदर तक हिला गया। उनके सामने मासूम बिब्बो की परवरिश एक चुनौती के रूप में मुँह बाये खड़ी थी। खेड़े के बड़े बुजुर्गों ने दूसरे विवाह का हवाला दिया।कुछ ने तो त्रयोदशा: का भी इंतजार नहीं किया और फलाने की बिटिया फलाने की भतीजी का नाम सुझाने लगे। पर,शास्त्री जी को बिब्बो के अलावा अब कुछ भी नहीं सूझ रहा था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि अपनी फूल सी बेटी को विमाता का संत्रास नहीं देंगे।धीरे-धीरे समय बीता सहानुभूति दर्शाने वाले अपने-अपने कोटरो में सिमट गए, पिता पुत्री अकेले रह गए एक दूसरे का मौन समझने के लिए। जीवन नैया हिचकोले खाकर आगे बढ़ रही थी कि तभी खेड़ा में तूफान सा आ गया पंडित गदाधर शास्त्री ने फैसला लिया कि बिब्बो को खेड़ा से दूर शहर में भेज कर पढ़ाने का, गांव के बुजुर्गों की आपात बैठक हुई पंडित जी की बहुत लानत- मलानत हुई। मुखिया जी तल्ख़ लहज़े में बोले थे गांव का उसूल तोड़ रहे हो पंडित,अभी तक कोई बेटी गांव के स्कूल से आगे नहीं गई है। लेकिन अपनी मेधावी बिटिया की मेधा समझ चुके पिता ने किसी की नहीं सुनी। गांव वालों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया दबंगों ने उन्हें पूजा पाठ के लिए ना बुलाने का फरमान जारी कर दिया और बाकी सब दबंगों के डर से दूर हो चले। पंडित जी को अगल-बगल के गांव से जो भी मिलता उसी को संतोष से अपना भाग्य समझकर ग्रहण करते। समय बीता विवेचना धर शास्त्री ने इंटर की परीक्षा में जिले में टॉप किया था। दबंगों के मुह थोड़े सिकुड़ गए, वह आते जाते कानों में फ़बतियाँ कसते "करैं का तो चौका बासनय है वोखे ख़ातिर इतना पढ़य की का जरूरत है"। बाबूजी बिना किसी प्रतिक्रिया के आगे बढ़ जाते। बिब्बो ने बी.ए.,एम.ए., पी.एच.डी.और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन हर जगह अव्वल। जब जब वह प्रथम पंक्ति में खड़ी हुई उसका संकल्प दृढ़ होता गया, और उसके बाबूजी की आंखों का वात्सल्य गहराता गया। आज बाबूजी नहीं है पर, उनके द्वारा किया गया उजास उसकी आभा को देदीप्यमान कर रहा है और अनगिनत बिब्बो उस उजास की किरण से चमक रहीं हैं। सोचते सोचते उसकी आंखें अपने बाबूजी के लिए कृतज्ञता से छलक उठी।
पूर्णिमा त्रिपाठी बाजपेई
109/164 जवाहर नगर, कानपुर
MO. NO. 8707225101
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