गंगा तुम कितना सहती हो......
नगरी-नगरी गांव-गांव
पर्वतों की छांव-छांव
तुम सदा बहती ही रहती हो,
गंगा तुम कितना सहती हो॥
आस हो तुम स्वांस
तुम विश्वास हो
जिंदगी की तंत्रिका में चल रही
हर स्वांस हो॥
अपनी जलधारा से सबको सींचती हो
गंगा तुम कितना सहती हो॥
जन्म हो या हो मरण मे
समाहित तेरे चरण में,
जो भी आ जाये शरण में
भूलकर छल-कपट उसके
पाप सब तुम हरती हो॥
गंगा तुम कितना सहती हो॥
ठोकरें कितनी लगें तुमको
फिर भी सबको हंसाती हो,
जो भी प्राणी आये तेरे घाट पर
देके तुम जीवन सरस सबको
प्यास सबकी बुझाती हो॥
धर्म जाति से परे होकर
सबकी बाहें थाम लेती हो,
गंगा तुम कितना सहती हो॥
पूर्णिमा त्रिपाठी
109/191 A,
जवाहर नगर कानपुर
8707225101