Monday, December 13, 2010

अंतहीन यात्रा

हुआ आरम्भ सिलसिला
एक अंतहीन सफ़र  का  
तुम  जो मिल गए अचानक   
पथिक  सहयात्री  बनकर  
जाने  क्यों  लगने  लगा  
जैसे  कि  तुम  चिरपुरातन  
संगी हो मेरे,काया बदल 
प्रगट हो गए हो अकस्मात्
तुम वही हो पथिक, जो
मेरी कल्पनाओं में 
सात समन्दरों के पार 
मेरे साथ कुलाचें भरता था .
तुम वही हो पथिक 
जो मेरी सोंच,मेरी आत्मा, 
मेरे मस्तिष्क को झिंझोड़  
सरसराती हवा की तरह 
निकल जाता था .
इस अंतहीन यात्रा में 
तुम इतने दिन तक 
कहाँ विश्राम  कर रहे थे 
मेरे सहचर ? आज | 
मेरे सामने खड़े हो 
मेरी सुप्त संवेदनाओं,
भावनाओं में प्राण फूंक दिए .
परन्तु  मैं विवश 
उस काया रहित
आत्मा की  भांति 
अप्रत्यक्ष तुम्हे चाह सकती हूँ 
जी सकती हूँ ,
अपना सर्वस्व अर्पण कर 
तुम्हें अनुभव कर सकती हूँ 
परन्तु हाय | नियति 
|प्रयत्यक्ष्तः तुम्हें अपने 
अंक में समाकर 
किसी वट - वृक्ष के तले 
अभिसार नहीं कर सकती .
तुम्हें इतनी शीघ्रता  क्यों थी ?
सहचर | क्यों थोड़ा पाने 
की चाह में अपना सबकुछ 
लुटा दिया? अब खाली हाथ |
कुछ देर प्रतीक्षा की होती 
मुझे समय लगा तुम्हारी
यात्रा को सरस बनाने में 
और तुम विकल, पहले ही 
पथ पर चल पड़े .
अब अचानक मिले हो 
तो थोड़ी देर ठहरो .
ठहर कर मेरे साथ चलो 
ताकि मैं भर सकूँ, 
अपना रीतापन 
तुम्हारे अस्तित्व  से.


पूर्णिमा त्रिपाठी

Thursday, December 2, 2010

समय की किताब से

चुन लेते हैं
हम कुछ यादें
समय की किताब से
परिस्कृत ,परिसज्जित
 प्रस्फुटित प्रफुल्लित   
अपने हिसाब से .
निकलता है जो तत्व
भेद  जाता है हृदय की 
सघन परतों को  
और बनता है 
एक इतिहास 
जो अदृश्य है 
परन्तु अविस्मर्णीय नहीं 
और तब घूमता है 
आँखों के समक्ष 
एक चलचित्र 
आदि से अंत तक 
जो कहता है 
एक नई कहानी 
तस्वीरों की जुबानी 
जो सिला देती हैं 
हमारी भीरुता का 
की हम कितने कायर हैं 
सह गए वो अन्याय 
इतनी सहजता से 
जो असहनीय था 
मान बैठे उसे 
कर्म की इतिश्री 
बस सोंचकर 
की जो होना है 
सो हो चुका
पर मत भूलो 
की वर्तमान 
कल का अतीत है 
और समय
 उसका साक्षी. 

पूर्णिमा त्रिपाठी  

Wednesday, December 1, 2010

जिंदगी का सार

जन - जन सुखी  हो
भावना से  भावना का द्वार हो,
न रहे अशिक्षित कोई जन
ज्ञान का विस्तार हो.
न हो कलुष मन में
सभी से प्रेम का व्यापार हो,
निज ज्ञान के चक्षु खुलें
यह जिंदगी का सार हो .
द्वेष मन में न रहे
नित सत्य का उपहार हो,
अधिकार दें  अधिकार लें 
यह जिंदगी का सार हो.
स्नेह करुणा से भरे 
नयनों में नित आभार हो, 
धोखा न हो निज कर्म में 
न अहं का व्यवहार हो. 
सम्मान दें सम्मान लें 
यह जिंदगी का सार हो. 
भीरुता न हो दिलों में
वीरता अभिसार हो 
कोई न हो निर्बल दुखी 
न दीनता पर मार हो, 
प्यार दें और प्यार लें 
यह जिंदगी का सार हो .

पूर्णिमा त्रिपाठी  

Search This Blog

Pages

My Blog List

Followers

About Me

My photo
मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.