Wednesday, March 3, 2010

ठूंठ

तुम ठूंठ मैं ठूंठ
सब ठूंठ ही ठूंठ
ज्यों -ज्यों हमने
'कलि' युग को
स्वर्ण युग में बदला 
त्यों -त्यों कलपुर्जों 
में बदल फिट होते गए 
मशीनों में 
बनते गए ठूंठ .
हमारी संवेदनाएं, भावनाएं,
वेदनाएं ,सर्जनाएं 
सब ठूंठ ही ठूंठ 
धरती से अम्बर तक
ठूंठ ही ठूंठ 
काश! इन ठूंठों पर
 एक कोमल ,चिकना 
हरा -लाल पत्ता 
मुलक कर 
विहँस कर 
स्वयं को जगा ले 
और भर दे हरीतिमा से 
इन ठूंठों को 
और दे- दे
एक नया जीवन 
एक नयी सोंच 
एक नया परिवेश ,
और ठूंठ बदल जाये 
हरे-भरे लक - दक 
करते वृक्षों में 
सब को दे साँस 
जीने की आस .      

1 comment:

  1. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.