Monday, December 13, 2010

अंतहीन यात्रा

हुआ आरम्भ सिलसिला
एक अंतहीन सफ़र  का  
तुम  जो मिल गए अचानक   
पथिक  सहयात्री  बनकर  
जाने  क्यों  लगने  लगा  
जैसे  कि  तुम  चिरपुरातन  
संगी हो मेरे,काया बदल 
प्रगट हो गए हो अकस्मात्
तुम वही हो पथिक, जो
मेरी कल्पनाओं में 
सात समन्दरों के पार 
मेरे साथ कुलाचें भरता था .
तुम वही हो पथिक 
जो मेरी सोंच,मेरी आत्मा, 
मेरे मस्तिष्क को झिंझोड़  
सरसराती हवा की तरह 
निकल जाता था .
इस अंतहीन यात्रा में 
तुम इतने दिन तक 
कहाँ विश्राम  कर रहे थे 
मेरे सहचर ? आज | 
मेरे सामने खड़े हो 
मेरी सुप्त संवेदनाओं,
भावनाओं में प्राण फूंक दिए .
परन्तु  मैं विवश 
उस काया रहित
आत्मा की  भांति 
अप्रत्यक्ष तुम्हे चाह सकती हूँ 
जी सकती हूँ ,
अपना सर्वस्व अर्पण कर 
तुम्हें अनुभव कर सकती हूँ 
परन्तु हाय | नियति 
|प्रयत्यक्ष्तः तुम्हें अपने 
अंक में समाकर 
किसी वट - वृक्ष के तले 
अभिसार नहीं कर सकती .
तुम्हें इतनी शीघ्रता  क्यों थी ?
सहचर | क्यों थोड़ा पाने 
की चाह में अपना सबकुछ 
लुटा दिया? अब खाली हाथ |
कुछ देर प्रतीक्षा की होती 
मुझे समय लगा तुम्हारी
यात्रा को सरस बनाने में 
और तुम विकल, पहले ही 
पथ पर चल पड़े .
अब अचानक मिले हो 
तो थोड़ी देर ठहरो .
ठहर कर मेरे साथ चलो 
ताकि मैं भर सकूँ, 
अपना रीतापन 
तुम्हारे अस्तित्व  से.


पूर्णिमा त्रिपाठी

Thursday, December 2, 2010

समय की किताब से

चुन लेते हैं
हम कुछ यादें
समय की किताब से
परिस्कृत ,परिसज्जित
 प्रस्फुटित प्रफुल्लित   
अपने हिसाब से .
निकलता है जो तत्व
भेद  जाता है हृदय की 
सघन परतों को  
और बनता है 
एक इतिहास 
जो अदृश्य है 
परन्तु अविस्मर्णीय नहीं 
और तब घूमता है 
आँखों के समक्ष 
एक चलचित्र 
आदि से अंत तक 
जो कहता है 
एक नई कहानी 
तस्वीरों की जुबानी 
जो सिला देती हैं 
हमारी भीरुता का 
की हम कितने कायर हैं 
सह गए वो अन्याय 
इतनी सहजता से 
जो असहनीय था 
मान बैठे उसे 
कर्म की इतिश्री 
बस सोंचकर 
की जो होना है 
सो हो चुका
पर मत भूलो 
की वर्तमान 
कल का अतीत है 
और समय
 उसका साक्षी. 

पूर्णिमा त्रिपाठी  

Wednesday, December 1, 2010

जिंदगी का सार

जन - जन सुखी  हो
भावना से  भावना का द्वार हो,
न रहे अशिक्षित कोई जन
ज्ञान का विस्तार हो.
न हो कलुष मन में
सभी से प्रेम का व्यापार हो,
निज ज्ञान के चक्षु खुलें
यह जिंदगी का सार हो .
द्वेष मन में न रहे
नित सत्य का उपहार हो,
अधिकार दें  अधिकार लें 
यह जिंदगी का सार हो.
स्नेह करुणा से भरे 
नयनों में नित आभार हो, 
धोखा न हो निज कर्म में 
न अहं का व्यवहार हो. 
सम्मान दें सम्मान लें 
यह जिंदगी का सार हो. 
भीरुता न हो दिलों में
वीरता अभिसार हो 
कोई न हो निर्बल दुखी 
न दीनता पर मार हो, 
प्यार दें और प्यार लें 
यह जिंदगी का सार हो .

पूर्णिमा त्रिपाठी  

Tuesday, November 30, 2010

आओ अनंत में चले

तुम कृष्ण बनकर
महानता का कार्य
करने की बातें करते हो,
और मैं राधा बन
राधा की विवशता
कातरता ,विरहाग्नि
महसूस करती हूँ ,
कृष्ण बनना आसन है.
कृष्ण बन राधा से
भूल जाने का,
मुक्त होने का वचन 
ले लेना आसान है. 
परन्तु राधा बन 
कृष्ण को भुलाना 
पूर्णतः असंभव है .
उतना ही, जितना तुम्हे 
मथुरा को छोड़ना
असंभव लगता है .
राधा की पीड़ा का 
अहसास तुम्हे हो न हो 
परन्तु कृष्ण की दुविधा का 
अनुमान मुझे पूरा है 
फिर क्या करे ? न तो 
तुम कृष्ण सम 
सर्व व्यापी हो 
और न मैं राधा सम
समाज में स्वीकृत,
आओ| फिर एक
 विचार करें और 
बना लें एक दूसरे को 
जीवन का लक्ष्य.
और पहुंचे ,उस 
ऊंचाई पर 
जहाँ हर बंधन 
से परे एक नया
 संसार प्रतीक्षा कर 
रहा होगा,जहाँ 
तेरे और मेरे 
सब अपने होंगे 
जहाँ स्पर्श का
 सुख न सही
विचारों का तालमेल 
स्नेहिल मन होगा 
जहाँ तुम्हारी सारी
 विवशताएँ दुख और दर्द
अच्छाई और बुराई 
सब मेरे होंगे 
और तुम निश्चिन्त 
व निष्काम हो 
फिर बनो एक बार 
कृष्ण और दो 
एक महान सन्देश 
आने वाले युग को 
और हमारा मिलन हो 
 अनंत के पार  .   

पूर्णिमा त्रिपाठी       

Monday, November 29, 2010

प्रेम:जीवन की परिभाषा

प्रेम में  परिभाषित क्या ?
अपरिभाषित  क्या ?
मर्यादित क्या ?
अमर्यादित क्या?
सामजिक क्या ?
असामाजिक क्या?
सभी एक ही
 तराजू से तुलते हैं
हृदय की सघन 
परतों के बीच
पनपता है यह .
अचानक कोई 
इतना करीब 
हो जाता है कि 
आप सबसे दूर 
स्मृतियों को सहेजे 
पल    -     छिन 
रात और दिन   
डूबे रहते हैं
अक्स तलाशने में .
यह खोज जारी
 रहती है अनवरत
तब - तक जब - तक
तुम सामने सशरीर न हो .
तुम्हारी |
शहद  सी मीठी बातें
और प्यार भरी
 चितवन न हो .
तुम्हारा अस्तित्व
बनता है सांसों के
 चलने का ईधन
और तुम पूरे के पूरे 
मुझमें समाकर, बना 
देते हो मुझे सम्पूर्ण .
और मैं तुम्हे सम्भोग 
में समाधि का देकर 
चरम आनंद 
बनाती हूँ विदेह 
और तब तुम नई 
आभा से होकर दीप्त
ऊर्जा से होकर प्रदीप्त ,
करते हो एक नया सृजन .
बनते हो युग द्रष्टा
और मैं अनुभव करती हूँ
असीम शांति का
करती हूँ गर्व,महसूसती  हूँ
सुख,तुम्हे अनंत में
अखंड देखने का .

पूर्णिमा त्रिपाठी

Friday, November 26, 2010

जीवन गति

चल री पवन चल चल चल 
आज यहाँ कल वहां ठहर
जीवन कि गति शास्वत  संगम
जीवन दुख कि एक लहर .
माना जीवन में दुख आते 
एक झोके में सब बह जाते,
 झंझावातों से क्या डरना ?
दुख के अवसानो को लाते.
दुख कि निशा बीतने पर 
स्वर्णिम प्रभात मुस्काता है 
जीवन की राहें कर प्रशस्त 
सुखमय उसको कर जाता है 


पूर्णिमा त्रिपाठी
 

Thursday, November 25, 2010

मुखौटे

चेहरे पर लगे मुखौटे
जीवन की वास्तविकता
से परे जीवन को
बोझिल बना देते है.
बरसती आँखों पर
ख़ुशी का मुखौटा
सहमें होठों पर
हंसी का मुखौटा
जीने का अंदाज
बयाँ करने वाले
जीने के अंदाज का
दोहरा मुखौटा.
कब तक मुखौटे
के सहारे जिंदगी
बिताओगे ?
कही न कहीं
मात खाओगे.
एक बार सिर्फ
एक पल के लिए
सारे मुखौटे  उतार
उस पल को जियो,
पाओगे जिंदगी
बहुत अपनी है .
मुखौटे के सहारे
जीवन के पल
गुजारे जा सकते है
आत्मा से परे मन से दूर
जिए नहीं जा सकते .
मुखौटे हकीक़त नहीं
 एक आवरण भर हैं 
आवरण कभी भी हट सकता है . 

पूर्णिमा त्रिपाठी

Sunday, November 21, 2010

प्रेम एक : संघर्ष

चाहत है तो संघर्ष है ,
संघर्ष  है तो रास्ते है
कुछ ऊँचे - नीचे
कुछ टेढ़े  - मेढे
कुछ सीधे - सच्चे .
जीवन एक कर्मयुद्ध है ,
लड़ाई तो लड़नी है,
परन्तु कर्त्तव्य भी करना है .
जिंदगी भावनाओं का ज्वार है
मिटने नहीं देना है ,
महसूस भी करना है .
जिंदगी एक नाट्य रूपांतर है
हमें प्राण फूंक
जीवन्तता रखनी है .
जिंदगी दूसरों का कर्ज है
खुद को लुटा देना है ,
दूसरों कि एक मुसकान पर .
जिंदगी स्वयं के लिए
वरदान है .
भरने है
 कुछ रंग अपने लिए.
 सहेजनी है कुछ स्मृतियाँ
छीनने है कुछ पल ,
जो अपने ,सिर्फ अपने लिए हों .
जिंदगी के संघर्ष 
सारी संवेदनाएं  ,भावनाएं 
जुड़कर बनायेंगी नया अध्याय 
जो जिंदगी को देगा 
एक नया रूप.

पूर्णिमा त्रिपाठी  

Friday, November 19, 2010

मुझे मालूम है

मुझे मालूम है कि
यह पहला अहसास है
जिसने मेरी आत्मा को छुआ
मैं बार- बार इस छुअन को 
महसूस करना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है कि
यह क्षणिक आवेग है ,
मुझे मालूम है कि 
यह मृग मरीचिका  है, 
फिर भी इसके पीछे  भागती हूँ .
मुझे मालूम है कि 
रेत  से   महल   नहीं  बनते   
फिर भी बनाने   का 
 प्रयास   करती  हूँ .
मुझे मालूम  है कि इन  
क्षणों  में  बार-बार मरी  हूँ
फिर  भी जीना   चाहती हूँ . 
मुझे  मालूम है कि 
समर्पण  ही  प्रेम  की परिभाषा  है 
फिर  भी अपने  आप  को बांटती   हूँ .
मुझे मालूम है की
 यह स्वप्न   है, छलावा है 
फिर भी पलकों  पर  सजाती  हूँ .
मुझे मालूम है की तुम  
सूर्य  हो  मैं हूँ धरा  
फिर भी तपिश  पा 
तपना  चाहती हूँ .
मुझे मालूम है की
 तुम  व्रक्ष हो  मैं छांव हूँ 
तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है की तुम 
हारकर जीते ,
मैं जीत कर हारी 
फिर भी तुम्हे 
जीत देना चाहती हूँ .
मुझे मालूम है की तुम 
शब्द-शब्द बिखरे हो 
तुम्हे समेट कर ,
एक रूप देना चाहती हूँ .


पूर्णिमा त्रिपाठी    

Thursday, November 18, 2010

वो क्षण

वो क्षण जब तुमने
मुझे छूकर,
 कंचन बना दिया.
वो पल था अनमोल ,
जब तुमने अपने 
प्रेम का प्रतिदान
मांग कर 
मुझे दानी बना दिया .
वो क्षण जब तुम
किसी तरुण की भाति
याचक बन कर खड़े थे ,
और मैं किसी सोड्सी सम 
अभिव्यक्ति से परे थी .
उस क्षण मैंने जी लिए 
सहस्रों युग सहस्रों जन्म 
और कैद कर लिया 
उस अनुभूति को 
जो अनुपम है ,अतुलनीय भी 
जिसे महसूस कर 
मरने से परे
 मैं बार- बार
जी सकती हूँ .


पूर्णिमा त्रिपाठी

Wednesday, November 17, 2010

उधार का दिया

उधार का दिए से 
घर रोशन नहीं होता 
वक़्त बदलते ही कोई आएगा 
अक्स की हकीक़त समझाएगा 
और दिए को ले जायेगा 
मेरे घर फिर अँधेरा रह जायेगा .
तुम उधार के दिए हो
तभी समझ जाती 
तो अंतस की पीड़ा
को प्रश्रय न देती 
अब तो जान पे बन आई  है ,
इधर कुआं उधर खाई है 
थोडा टिमटिमा कर 
रौशनी दिखा कर
चाहत जगा कर 
छू लिया मेरे मन के 
मासूम कोने को .
बिखेर दी है अपने
 अस्तित्व  की रौशनी 
मेरे तन-मन  की गंध  में
और अब समेटने लगे हो 
अपने तन-मन की रौशनी को.
मैं चाहत की मारी 
आजीवन अँधेरे का 
अभिशाप झेलती रहूंगी
और फिर कभी 
प्रेम को परिभाषित 
करने की जुर्रत 
न कर सकूँ 
इस लिए उधार के 
दिए की पीड़ा पालती रहूंगी.  


पूर्णिमा त्रिपाठी    

Sunday, November 14, 2010

मैं नारी हूँ

मैं नारी हूँ 
पूर्णता का पर्याय  
हे पुरुष मेरे 
पास आकर तुम 
पूर्णत्व  को प्राप्त करो.
अपनी साड़ी जिज्ञासाएं
अनैतिक कुंठाएं
पूरी विसमतायें
मुझमे स्नान करके
मेरे ही अन्दर
छोड़ दो और
मैं उन्हें परिमार्जित
कर दूँगी एक
सुघड़ नया रूप 
जो होगा एक
चेहरा सलोना
.उस नए प्रस्फुटन 
को सामने रख
मैं तुम्हे उसमे 
तुम्हारा ही रूप 
दिखाउंगी तब तुम 
मेरी क्षमता और
 ममता को परख ,
मेरे आँचल में 
सामाजाना.
और फिर एक बार 
मै तुम्हे प्यार से 
चूमकर सारी कुंठाओं 
को दूर कर 
तुम्हे पूर्ण पुरुष 
बना पूर्णत्व  दूँगी. 

पूर्णिमा त्रिपाठी     
  

कामकाजी औरत

वो कामकाजी औरत
घर और समाज में
समानता का बोझ
अपने कंधे पर उठाये
स्कूलों ,दफ्तरों,
और समाज  में अपनी 
प्रतिभा बिखेरती है .
वो कामकाजी औरत 
दिखती है गिट्टी तोड़ती
सड़कों से कचरा बीनती
दुधमुहें शिशु को परे रख
सर पर बोझ उठाती.
वो कामकाजी औरत
सहती है वासना
 से भरी द्रष्टि
बचाती है समाज
के अस्तित्व  को 
फिर जानती है 
एक पुरुष को 
जो उघारता है 
तन और मन 
देता है नासूर 
जो सालता है 
उम्र दराज होने तक . 


पूर्णिमा त्रिपाठी

Thursday, November 11, 2010

सृजन पथ

तुम्हारे सृजन का पथ
अगर मेरी आत्मा के
 द्वार से गुजरता है
तो यह अजर- अमर
तुम्हारे सृजन को 
सतत प्रवाहित सरिता बना 
अपने में मिला लेगी .
तुम्हारे सृजन का पथ
 मेरे ह्रदय के द्वार से
 गुजरता है तो शब्दों को 
प्रीति में डुबो माधुर्य 
की लेखनी से सवार 
आकंठ डूबी भावनाओं 
का उपहार देगी.
तुम्हारे सृजन का पथ  
मेरे गात से गुजरता है 
तो इस शरीर को 
तपोभूमि बना देह की 
आग से तपा पूर्णता से
 भर तुम्हारे सृजन को 
अपरिमित होने का 
अहसास देगी .

पूर्णिमा त्रिपाठी   

Wednesday, November 10, 2010

नारी: श्रष्टि का आधार

अपनी कोमल भावनाओं
निश्चल व्यवहार
दुनियावी पाखण्ड से दूर
तुम फिर छली गयी
क्यों तुमने अपनी आँखों पर
 भावनावों का चश्मा 
चढ़ा रखा है.
क्यों तुम बार-बार 
लुटती हो, टूटती हो,बिखरती हो.
कभी न सिमटने के लिए 
खुद को मानो ,जानो,पहचानो 
भेड़ियों की भीड़ में 
बकरी बन मिमियाने
 से मिट जाओगी 
सिंहनी बन दहाड़ो.

पूर्णिमा त्रिपाठी  

बदनाम

तंग दिल
बजबजाती गलियाँ
भुतहे चेहरे
सभी कह रहे है
की मै बदनाम हो गयी हूँ.
मेरी कमजोर भावनाओं ,
आहत संवेगों ने 
मुझे बदनामी की
 दूकान बना दिया है. 
चाहत के बाजार में 
मैं प्रतिदिन बिकी हूँ .
उन भुतहे चेहरों की 
सूखे होठों  पर
लपलपाती जीभें
पूरे का पूरा खा
जाने वाली निगाहें
मुझमें ग्लानि नहीं जगाती
क्योंकि, मैंने
मन के बाजार में
चाहत की दूकान सजाकर
प्रेम की मुद्रा ले कर
देह की बेदी पर
एक लौ लगाई है .
मेरा तन और  मन
मिलन स्थल है 
उस क्षण का 
जहां साड़ी कायनात से परे 
एक शब्द गूजता है 
प्रिय- प्रियतम- प्रेम 
और तोड़ देता है बदनामी के 
सारे मिथकों को. 


पूर्णिमा त्रिपाठी

  

Wednesday, September 29, 2010

गाँधी बोले मैं आऊंगा

सत्य अहिंसा के नायक
सत्याग्रह के जो गायक 
खुली  पलक  के  स्वप्नद्वार से 
आकर यूँ बोले  मुझसे ,
मैं गाँधी भारत की आत्मा 
मेरा  अणु - अणु यहाँ व्याप्त है 
मेरे सपनो का सत्य सकल 
कण - कण यहाँ व्याप्त है .
स्थापित करने को रामराज्य 
मैं पुनह  एक दिन आऊंगा 
संगीनों के साए में भटके 
भारत की संवेदना जगाऊंगा .
आजादी के बाद देश की 
हालत भी सवरी है ,
विज्ञान - ज्ञान संपन्न हुआ 
गौरव - गरिमा भी निखरी है 
पर सत्य अहिंसा दया 
क्षमा के वादे टूटे है 
इंसा के इंसा होने के
 नेक इरादे टूटे  है
मैं आऊंगा भेद मिटाने 
मानवता का पाठ पढ़ाने
सत्याग्रह की अलख जगाने 
भारत माँ का दर्द बटाने.
अणु और परमाणु युद्ध
मैं रोक सकूंगा
पुनः कहूँगा राम राम
 हे राम| मगर भारत
 अक्षुण है, भारत के
क्षय को रोक सकूंगा 
ज्ञान और विज्ञान प्रबल हो 
यह बिगुल बजाऊंगा 
मैं गाँधी भारत की आत्मा 
मैं पुनः एक दिन आऊंगा.

पूर्णिमा त्रिपाठी    

 

Tuesday, September 28, 2010

२ अक्टूबर पर बापू को श्रद्धांजलि

कल राजघाट पर
प्रातः सैर करते करते
कुछ कदम चली,
अचानक एक दुबली पतली
काया सामने आकर खड़ी हो गई .
मैंने जरा गौर से देखा
अरे ये तो बापू है
मैं हुलस कर आगे बढ़ी
बोली बापू आप यहाँ कैसे ?
मैं गद-गद बापू मलिन,
उदासी और निराशा
की प्रतिमूर्ति,
दींन स्वर में बोले
बस अपने नौ निहालों से
मिलने चला आया .
की थी परिकल्पना
जिस रामराज्य की
उसे देखने चला आया
थोड़ा  ठहर कर, बापू बोले
सोंचता हूँ कुछ दिन
यहीं ठहर जाऊं
अपने देश और देशवासिओं में
हिंसा के खिलाफ
अहिंसा का मंत्र
फिर फूंक जाऊं .
फिर रख जाऊं
रामराज्य की आधार- शिला
फिर से करूँ उदघोष
हिंसा से हमें क्या मिला.
मैंने कहा बापू
आज कोई
किसी की नहीं सुनता
सिर्फ अपने और
अपने लिए ही
हर कोई है
ताने -बाने बुनता .
मेरी माने तो बापू
आप वहीँ रहिये
यहाँ आयेगे तो पछतायेंगे
सत्कर्तव्य सत्यनिष्ठा
संस्कार स्वभाषा के
निधन पर आंसू बहाएगे.


पूर्णिमा त्रिपाठी































Wednesday, September 15, 2010

हिंदी से हिंदुत्व और हिदुस्तान की शान है
आन बान शान और मान को बढाइये ,
देश हो विदेश दूर देश में भी बैठकर
मातु मातृभाषा मातृभूमि गुण गाईये .

सरल सुग्राह संतोष और सुख दे
बतरस रस घोले ह्रदय में उतारिये
हिंदी भाषा जनभाषा आम भाषा रूप है
ऐसी हिंदी भाषा पे सौ जन्मों को वारिये .

कबीरा ने बीज डाला तुलसी ने पानी दिया
सूरा संग हिंदी धीरे बड़ी हो गयी
भारत के इंदु भारतेंदु का आधार पाय
शैल सुता के समान हिंदी खड़ी हो गयी .

सूरज का ताप और चाँद की शीतलता
दोनों गुण एक हिंदी में ही पाईये
चिरजीवी चिरयुआ देववाणी महावाणी
ऐसी देवनागरी की लिपि अपनाईये.

हीन भावना  मिटाओ खुद को बढाओ आगे
ज्ञान और विज्ञान के तर्क समझाइये
आदि गुरु आर्यभट हिंदु में बनाया बिंदु
बिंदु की महत्ता आज हिंदी में समझायिए
हिंदी से हिदुत्वा और हिन्दुस्तान की शान है
आन बान शान और मान को बढाइये.\\\\\

Monday, June 21, 2010

वोह एक लड़की

वोह   एक  लड़की
 मखमल  के  जैसी 
 ओस  में  नहाई  
सकुचाई  शरमाई
 सुंदर  सा  मुखड़ा
 वोह  एक  लड़की .  
अलबेली,   अनजानी ,  
थोड़ी  सी  पहचानी, 
 आँखों  में  सपने  है 
 सपने  जो  अपने  है 
 कुछ  कर  गुजरने  का 
 जज्बा  भी  था  उसमें 
 वोह   एक  लड़की. 
 छूने  को  तारों   को
 बहती  बयारों   को 
 मन  में  उमंगें  थी 
 तिरती  तरंगे  थी 
.साह्स  और  छमता का 
 संगम  अनूठा  था 

वोह एक लड़की .

Tuesday, March 16, 2010

आतंक वाद

 यह  जहर  न  जाने  कितनी
बलियां   और  लेगा ?
जाने  कितनी  माँ -बहनों   के
हृदय  तड्पाएगा .
कब  तक  होता   रहेगा
मानवता  का  नरसंहार ?
कब  तक  खंडित  रहेगा
मेरे  स्वदेश  का  यह  दुलार
क्या  कभी   न  हो  पायेगा
भाई  का  भाई  से  प्यार ?
क्या  टुकड़ो  में  बट  जाएगी
कश्मीरी  सुषमा  की  बहार
क्यों  प्यार  बांटते  हो  सबका
क्या  तनिक  भी  तुमको  छोभ  नहीं ?
राम  रहीम  की   वाणी    क्या  थी ?  
उसकी   कोई  सोंच   नहीं ,
बंद  करो   यह   भूल -  भुलैया  
झटको  इन  तुच्छ   विचारों  को.
यह  सारा  भारत  अपना  है
मत  सोचो   देश  बाटने  को.
आतंकवाद  की   यह  ज्वाला
जैसे  ही  बुझ  जाएगी  ,
भाई  चारे  से  हर्षित  हो
यह  वसुधा  दीप  जलाएगी .

पूर्णिमा त्रिपाठी







Monday, March 15, 2010

जागो


Sunday, March 14, 2010

यादों के धुंधले साए में

यादों  के  धुंधले  साये  


पीछा  करते  हैं .


वक़्त  गुजरता  जाता  हैं,


पर  अहसास  की  डोरी  थामे


भविष्य   के  उजालों   में  भूत 


के  अंधेरों   का  डर,


मन  को  कमजोर   करता  हैं.


रामरती  की  आहें ,


भोलू   काका  की  मजबूरी ,


चंपा  भौजी  की  व्याकुलता ,


रन्नो  की  पहाड़   सी  जवानी,


नंदू  भैया  की  बेरोजगारी ,


कुछ  सुलगते  हुए  सवाल ?


अधूरे  ठन्डे  से  जवाब.


आम  आदमी  के  जीवन  का  रहस्य


अनदेखा  अनकहा  भविष्य


कब  पिघलेगा  सूनी 


आँखों  का  नीर


कब  कटेगा कोहरा


हटेगी  पीर .


खाली खाली आँखों   में


सजेंगे  सुनहरे  ख्वाब,


तब  बोलेंगे  हम  होंगे  कामयाब .

Monday, March 8, 2010

ढाई आखर

कबीर  के   ढाई  आखर  

और  यह  कहना  की

प्रेम  न  बाड़ी   उपजे

प्रेम  न  हाट  बिकाय

सत्य  ही  है .

क्योंकि  इसके  लिए  तो

हृदय  की  उर्वर  जमीन

और  भावनाओ  संवेदनाओ

का  बीज  चाहिए.

भावनाए  जो  चिटक  कर

बिखरती  है  तो

जोडती  है  दो  तारों   को,

जिनको  कसने  से  गूँज

उठता  है   मधुर  संगीत

और  जाग  जाते  हैं

सुप्त  इंसान .

संवेदनाएं  जब  उभरती  है

तो  परिचित  कराती  हैं

मानव  को  मनुष्यत्व  से,

और  भगाती   हैं  कुंठाएं

बनाती  है  महान.

    
पूर्णिमा बाजपेयी त्रिपाठी

Sunday, March 7, 2010

अस्तित्व बोध

अंतरास्ट्रीय महिला दिवस पर

 बीज  को  चाहिए
 पनपने  के  लिए  
 उर्वर  जमीन
 पुष्पित  पल्लवित
 होने  के  लिए
 खाद  और  पानी
 तुम  धरा  हो ,
 स्रष्टि  का  आधा  अंग 
 अपने  अस्तित्व   को  पहचानो ,
 हुंकार  कर  कहो
 तुम्हे  दैवीय  
 परिभाषाएं  नहीं ,
 स्त्रीत्व  का अभिमान   चाहिए ,
 लोक  लाज  और  समाज
 सबने  दिया  है
 एक  अवगुंठन
 जिसके  अन्धेरें
 तुम्हारे  होने  को
 बनाते  है  एक  प्रश्न     
 और  तुम  लज्जा  को  
 आभूषण  बना
 चुकती  रहती  हो  तब  तक
 जब  तक तुम्हारे  हाड़  मास  से ,
 लहू  की  एक  - एक  बूँद
 तुम्हारे  अरमानो  का
 एक  एक  कतरा ,
 तुम्हारी  भावनाओं
 के  समंदर  का
 अगाध  स्नेह
 ख़ाली न  हो  जाए
 क्या  तुम  नहीं  जानती ?
 की  तुम  स्वयंसिद्धा  हो ,
 तुम्हारी  एक  हाँ  और  ना
 पर  टिका  है ,
 स्रष्टि    का   भविष्य .
 फिर  तुम  क्यों ?
 बेबसी  और  लाचारी  की
 प्रतिमूर्ति  बन
 आँखों  में,
 याचना  का  भाव  लिए
 भटकती  हो  वहां ,
 जहां  सूखा ,
 सिर्फ  सूखा  श्रोत   है
 जो  खुद   प्यासा  है  ,
 तुम्हे  क्या  पिलाएगा
 झटक  कर  खड़ी  हो  ,
 अपने  पावों    पर ,
 स्वयं  को  पहचानों
 क्योंकि  तुम  एक  स्तम्भ  हो
 इस  स्रष्टि   के ,
 समूल  परिवर्तन  का

पूर्णिमा त्रिपाठी .




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मै पूर्णिमा त्रिपाठी मेरा बस इतना सा परिचय है की, मै भावनाओं और संवेदनाओं में जीती हूँ. सामाजिक असमानता और विकृतियाँ मुझे हिला देती हैं. मै अपने देश के लोगों से बहुत प्रेम करती हूँ. और चाहती हूँ की मेरे देश में कोई भी भूखा न सोये.सबको शिक्षा का सामान अधिकार मिले ,और हर बेटी को उसके माँ बाप के आँगन में दुलार मिले.